रचयिता
- श्री शिव चालीसा के रचयिता श्री अयोध्यादास जी माने जाते हैं।
- इसका प्रमाण चालीसा की पंक्तियों "कहत अयोध्यादास आस तुम्हारी" और अंतिम दोहे से मिलता है, जिसमें संवत् 1964 (अर्थात सन् 1907) में इसके पूर्ण होने का उल्लेख है।
रचना का उद्देश्य
- इसका मुख्य उद्देश्य आम भक्तों के लिए भगवान शिव की स्तुति को सरल और सुगम बनाना था, जो वेदों और पुराणों की जटिल संस्कृत को नहीं समझ सकते।
- चालीसा के माध्यम से भगवान शिव के स्वरूप, लीलाओं, परिवार और उनकी कृपा का सरल भाषा में गुणगान करना, ताकि भक्त आसानी से उनसे जुड़ सकें।
शिव चालीसा की विशेषताएँ
- सरल भाषा: यह सरल अवधी भाषा में लिखी गई है, जिसे कोई भी आसानी से गा और समझ सकता है।
- पूर्ण वर्णन: इन 40 चौपाइयों में शिव जी के रूप (भाल चन्द्रमा), परिवार (गिरिजा पति, गणेश, कार्तिक), अस्त्र (त्रिशूल), लीलाओं (विषपान, त्रिपुरासुर वध) और भक्तवत्सल स्वभाव का अद्भुत वर्णन है।
- फलदायी स्तुति: इसमें पाठ करने के लाभ (ऋण मुक्ति, पुत्र प्राप्ति, पाप नाश) स्पष्ट रूप से बताए गए हैं, जिससे भक्तों की श्रद्धा और बढ़ जाती है।
पढ़ने के नियम
- शुद्धता: प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर पाठ करना सर्वोत्तम माना गया है।
- स्थान और वातावरण: घर के मंदिर या किसी शांत और स्वच्छ स्थान पर आसन बिछाकर बैठें। एक दीपक और धूप अवश्य जलाएं।
- आरम्भ: पाठ से पहले भगवान गणेश का स्मरण करें और फिर भगवान शिव का ध्यान करें।
- उच्चारण एवं भाव: चालीसा का पाठ स्पष्ट शब्दों में और भक्ति भाव के साथ करना चाहिए, न कि केवल जल्दी-जल्दी पढ़ना।
- विशेष दिन: प्रतिदिन पाठ करना उत्तम है, परन्तु सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि के दिन इसका पाठ करना अतीव पुण्यदायी होता है।
॥ श्री शिव चालीसा ॥
॥ दोहा ॥
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
अर्थ: हे गिरिजा (पार्वती) के पुत्र गणेश! आपकी जय हो। आप सभी मंगलों के मूल स्रोत और सबसे ज्ञानी हैं। मैं, अयोध्यादास, आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे निर्भय होने का वरदान दें।
॥ चौपाई ॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला।
सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
अर्थ: हे गिरिजा के पति, दीनों पर दया करने वाले! आपकी जय हो। आप सदा ही संतों की रक्षा करते हैं।
भाल चन्द्रमा सोहत नीके।
कानन कुण्डल नागफनी के॥
अर्थ: आपके मस्तक पर चंद्रमा अत्यंत सुशोभित है और आपके कानों में नाग के फन के आकार के कुंडल शोभायमान हैं।
अंग गौर शिर गंग बहाये।
मुण्डमाल तन क्षार लगाये॥
अर्थ: आपका शरीर गौर वर्ण का है, आपके सिर से गंगा जी बहती हैं, गले में मुंडों की माला है और शरीर पर भस्म लगी हुई है।
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे।
छवि को देखि नाग मुनि मोहे॥
अर्थ: आप बाघ की खाल के वस्त्र धारण किये हुए हैं। आपकी इस छवि को देखकर नाग और मुनिगण भी मोहित हो जाते हैं।
मैना मातु की ह्वै दुलारी।
वाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
अर्थ: मैना की दुलारी पुत्री (माता पार्वती) आपके बाएं अंग में बैठकर बहुत ही सुंदर और अनूठी छवि बना रही हैं।
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी।
करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
अर्थ: आपके हाथ में भारी त्रिशूल सुशोभित है, जिससे आप सदा शत्रुओं का नाश करते हैं।
नन्दि गणेश सोहैं तहँ कैसे।
सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
अर्थ: आपके पास नंदी और गणेश जी ऐसे शोभित हो रहे हैं, जैसे सागर के बीच में कमल के फूल खिले हों।
कार्तिक श्याम और गणराऊ।
या छवि को कहि जात न काऊ॥
अर्थ: कार्तिकेय, षडानन और अन्य गणों की इस सुंदर छवि का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता।
देवन जबहीं जाय पुकारा।
तब ही दुःख प्रभु आप निवारा॥
अर्थ: हे प्रभु! जब भी देवताओं ने आपको संकट में पुकारा है, तब आपने तुरंत उनके दुःखों का निवारण किया है।
किया उपद्रव तारक भारी।
देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
अर्थ: जब तारकासुर नामक दैत्य ने भारी उपद्रव मचाया, तब सभी देवताओं ने मिलकर आपसे ही सहायता की गुहार लगाई थी।
तुरत षडानन आप पठायउ।
लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
अर्थ: तब आपने तुरंत षडानन (कार्तिकेय) को भेजा, जिन्होंने पल भर में ही उस दैत्य को मारकर गिरा दिया।
आप जलंधर असुर संहारा।
सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
अर्थ: आपने ही जलंधर नामक असुर का संहार किया था। आपका यह सुयश पूरे संसार में प्रसिद्ध है।
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई।
सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
अर्थ: आपने त्रिपुरासुर से युद्ध करके और उसका वध करके सभी पर कृपा की और सबको बचा लिया।
किया तपहिं भागीरथ भारी।
पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी॥
अर्थ: जब भागीरथ ने कठोर तपस्या की, तब आपने उनकी पूर्व प्रतिज्ञा को पूरा किया (गंगा को पृथ्वी पर लाने में मदद की)।
दानिन महँ तुम सम कोउ नाहीं।
सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
अर्थ: हे प्रभु! दानियों में आपके समान कोई दूसरा नहीं है। इसीलिए सेवकगण सदा आपकी स्तुति करते रहते हैं।
वेद माहि महिमा तुम गाई।
अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
अर्थ: वेदों ने भी आपकी महिमा का गान किया है, लेकिन आपकी लीला अकथनीय और अनादि है, उसका भेद कोई नहीं पा सका।
प्रकटी उदधि मंथन में ज्वाला।
जरत सुरासुर भए विहाला॥
अर्थ: समुद्र मंथन के समय जब हलाहल विष की ज्वाला प्रकट हुई, तो उसकी अग्नि से देवता और असुर सभी व्याकुल हो उठे।
कीन्ही दया तहं करी सहाई।
नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
अर्थ: तब आपने दया करके सबकी सहायता की (उस विष को पी लिया), और तभी से आपका नाम 'नीलकंठ' कहलाया।
पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा।
जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
अर्थ: जब भगवान श्रीरामचंद्र जी ने आपकी पूजा की, तो उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त की और उसे विभीषण को सौंप दिया।
सहस कमल में हो रहे धारी।
कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
अर्थ: जब श्रीराम आपकी सहस्र (हजार) कमलों से पूजा कर रहे थे, तब हे त्रिपुरारी! आपने उनकी परीक्षा ली।
एक कमल प्रभु राखेउ जोई।
कमल नयन पूजन चहं सोई॥
अर्थ: हे प्रभु! आपने जो एक कमल छिपाकर रख लिया, उसकी पूर्ति के लिए श्रीराम ने अपने कमल समान नेत्र को अर्पित करने का निश्चय किया।
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर।
भए प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
अर्थ: हे प्रभु शंकर! ऐसी कठोर भक्ति देखकर आप प्रसन्न हो गए और उन्हें मनचाहा वरदान दिया।
जय जय जय अनन्त अविनाशी।
करत कृपा सब के घटवासी॥
अर्थ: हे अनन्त और अविनाशी प्रभु! आपकी जय हो! आप सभी के हृदय में निवास करते हैं और सब पर कृपा करते हैं।
दुष्ट सकल नित मोहि सतावैं।
भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै॥
अर्थ: अनेक प्रकार के दुष्ट मुझे नित्य सताते हैं, जिस कारण मैं भटकता रहता हूँ और मुझे शांति नहीं मिलती।
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो।
यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
अर्थ: हे नाथ! मैं 'रक्षा करो, रक्षा करो' कहकर आपको पुकार रहा हूँ। इस संकट के अवसर पर आकर मुझे बचाइए।
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो।
संकट से मोहि आन उबारो॥
अर्थ: अपना त्रिशूल लेकर मेरे शत्रुओं का नाश कीजिये और मुझे इस संकट से आकर उबार लीजिये।
मात-पिता भ्राता सब होई।
संकट में पूछत नहिं कोई॥
अर्थ: माता, पिता, भाई-बंधु, ये सब रिश्तेदार तभी तक हैं जब तक सब ठीक है। संकट आने पर इनमें से कोई भी नहीं पूछता।
स्वामी एक है आस तुम्हारी।
आय हरहु मम संकट भारी॥
अर्थ: हे स्वामी! केवल आप ही मेरी एकमात्र आशा हैं। आकर मेरे इस भारी संकट को दूर कीजिये।
धन निर्धन को देत सदा हीं।
जो कोई जांचे सो फल पाहीं॥
अर्थ: आप निर्धनों को सदा ही धन देते हैं। जो कोई भी आपसे जो कुछ भी मांगता है, उसे वह फल अवश्य प्राप्त होता है।
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी।
क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
अर्थ: मैं किस विधि से आपकी स्तुति करूँ? हे नाथ! यदि मुझसे कोई भूल हो गयी हो तो मुझे क्षमा कर दीजिये।
शंकर हो संकट के नाशन।
मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
अर्थ: हे शंकर! आप संकटों का नाश करने वाले हैं। आप ही मंगल करने वाले और सभी विघ्नों का विनाश करने वाले हैं।
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं।
शारद नारद शीश नवावैं॥
अर्थ: योगी, यति और मुनिगण आपका ही ध्यान लगाते हैं। सरस्वती और नारद जी जैसे देवर्षि भी आपको शीश झुकाते हैं।
नमो नमो जय नमः शिवाय।
सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
अर्थ: हे शिव! आपको बार-बार नमस्कार है। 'नमः शिवाय' मंत्र आपकी जय हो। देवता और ब्रह्मा जी भी आपका पार नहीं पा सके।
जो यह पाठ करे मन लाई।
ता पर होत है शम्भु सहाई॥
अर्थ: जो भी व्यक्ति इस चालीसा का मन लगाकर पाठ करता है, उस पर भगवान शंभु की सहायता अवश्य होती है।
ऋनियां जो कोई हो अधिकारी।
पाठ करे सो पावन हारी॥
अर्थ: जो कोई ऋणी (कर्जदार) व्यक्ति इस पाठ को श्रद्धा से करता है, वह ऋण से मुक्त हो जाता है।
पुत्र होन कर इच्छा जोई।
निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
अर्थ: जिस किसी की भी पुत्र प्राप्ति की इच्छा हो, उसे निश्चय ही शिव जी की कृपा से पुत्र की प्राप्ति होती है।
पण्डित त्रयोदशी को लावे।
ध्यान पूर्वक होम करावे॥
अर्थ: त्रयोदशी (तेरस) के दिन किसी पंडित को बुलाकर, ध्यानपूर्वक हवन कराना चाहिए।
त्रयोदशी व्रत करै हमेशा।
ताके तन नहिं रहै कलेशा॥
अर्थ: जो व्यक्ति हमेशा त्रयोदशी का व्रत करता है, उसके शरीर में कोई भी कष्ट या रोग नहीं रहता है।
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे।
शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
अर्थ: जो धूप, दीप और नैवेद्य चढ़ाकर भगवान शंकर के सामने इस पाठ को करता है,
जन्म-जन्म के पाप नसावे।
अन्त धाम शिवपुर में पावे॥
अर्थ: उसके जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में वह शिवलोक को प्राप्त करता है।
कहत अयोध्यादास आस तुम्हारी।
जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
अर्थ: अयोध्यादास जी कहते हैं कि हे प्रभु! मुझे केवल आपकी ही आशा है। आप यह जानकर मेरे सभी दुःखों को हर लीजिये।
॥ दोहा ॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
अर्थ: हे जगदीश! मैं प्रतिदिन नियम से प्रातःकाल इस चालीसा का पाठ करता हूँ। आप मेरी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करें।
मगसर छठि हेमन्त ऋतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥
अर्थ: यह शिव चालीसा स्तुति, मगसर (मार्गशीर्ष) महीने की छठी तिथि, हेमंत ऋतु, संवत् 1964 में, जगत के कल्याण के लिए पूर्ण की गई।