शिव तांडव स्तोत्र — संस्कृत और हिंदी अर्थ | Shiv Tandav Stotram - Sanskrit with Hindi

ॐ नमः शिवाय

शिव तांडव स्तोत्र रचयिता: श्री रावण।

स्त्रोत प्रारम्भ

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥ 1 ॥
अर्थ: जटाओं से बहते जल से उनका कंठ पवित्र हुआ है, गले में साँपों की ऊँची माला लटकी हुई है; डमरू की अनवरत ध्वनि वादन से वे चण्ड-ताण्डव कर रहे हैं — वही हमारा शिव-सुख प्रदान करें।
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिरझरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥
अर्थ: जटा के घूमने से सिर पर झरने-सी धारा झरती है; ललाट पर प्रज्वलित अग्नि के मध्य किशोर चंद्रमा विराजमान हैं — ऐसे रूप में मेरा मन सर्वदा रमण करे।
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
अर्थ: पर्वतराज की कन्या (पार्वती) के साथ खेल-लीला करते हुए, जिनकी एक कृपा-नज़र से भी बड़ा संकट रुचकर शांत हो जाए — उन दिगम्बर (वस्त्ररहित) शिव का दृश्य मेरे मन को आनंद दे।
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
अर्थ: जटाओं में लिप्त सर्पों के फणों की लहरी में मणियों की चमक है; कदम्ब-कोमल कुंकुम से दिशाएँ अलंकृत हैं — ऐसे अद्भुत रूप वाले जगत्-धारक शिव मेरा मन आनंदित रखें।
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥ 5 ॥
अर्थ: सहस्र नेत्रों वाले (सहस्रलोचन) और शेष के लेखों से मुखरित, पुष्प-धूलि से जिनके पाद पूर्णतः आच्छादित हैं, और भुजंगराज (सर्पराज) माला से जटा-बद्ध जिनका शिरोभूषण है — ऐसे चकोर-प्रिय (चन्द्र-प्रिय) शेखर के लिए सदा ऐश्वर्य वृद्धि हो।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥ 6 ॥
अर्थ: ललाट की ज्वाला से जो तेज निकलता है और धनञ्जय (कामदेव) का संहार करने वाला; जिनके माथे पर चन्द्रमा की किरणें पाई जाती हैं — ऐसे महाकपाल-धारी शिरो- जटाल को हमारा नमन हो तथा वे हमें अनुग्रह दें।
करालफालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥ 7 ॥
अर्थ: (ललाट की अग्नि से) कराल भाल पट्टिका प्रज्वलित है; धट्-धट् की गर्जन से धनञ्जय (कामदेव) नष्ट हुआ; धराधर-नंदिनी (पार्वती) के कुचाग्र पर उकेरे चित्र-चित्राकार करने वाली कला की उस मूर्तिकार जैसी त्रिलोचन (शिव) पर मेरा मन स्थिर रहे।
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबन्धुकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥ 8 ॥
अर्थ: नए मेघ-मण्डल के समान घने केश, प्रबन्ध-बंधु (जटा) से झरते जल से जैसे चित्त मोह हो जाता है — ऐसे निलिम्प-निर्झरी-धारी, कला-धन के स्वामी जगत् के भूताधारक को मैं श्री, वैभव की कामना कर भजे।
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
विलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ 9 ॥
अर्थ: प्रफुल्लित नीले पंकज (नील-रंग) समान विश्व-कालिका प्रभा वाले, विलम्बित(लट) कण्ठ कन्दली से अलंकृत कन्धर — मैं स्मर (कामदेव), पुर (त्रिपुर), भव (संसार), मखा (यज्ञ), गज (हाथी), अंधक, तथा तमन्तक (मृत्यु) — इन सब के भक्षक यानी अंत का भी विनाश करनेवाले शिव की भक्ति करता हूँ।
अगर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ 10 ॥
अर्थ: सब मंगलकारक कलाओं का सुमंगलित समूह, रसों का मधुर प्रवाह और उच्छ्वास-रहित नित्यमुद्रित व्रत — मैं कामदेव आदि सभी का संहार करनेवाले, संसारों और मृत्यु के अंतकर्ता शिव की भक्ति करता हूँ।
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालफालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ 11 ॥
अर्थ: जब भुजंगों के साँसों की गूँज, अश्व-श्वासों के क्रम और कराल भाल-प्रभा सब एक साथ विजरित होकर, मृदंग-तुङ्ग-नाद की ध्वनि-क्रम उत्पन्न करें — तब उत्पन्न हुआ प्रचण्ड ताण्डव ही शिव हैं।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥ 12 ॥
अर्थ: जिनके मन में भुजंग-मौक्तिक-शृंगार और उत्तम रत्न-गुहाएँ दिखाई देती हैं; जिनके दोनों दृष्टि-नेत्र तृष्णारविन्द जैसे हैं — वे हे महेन्द्र आदि सब प्रजा-भूमि में समान भाव उत्पन्न करते हुए मेरे मन को कब तक सदाशिव की भजन-स्थिति की अनुभूति कराएँगे? (भाव: मेरे मन को शिवाराधना की स्थिरता कब मिले?)
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललाटफाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् सदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
अर्थ: जब मैं निलिम्प-निर्झरी के निकुञ्ज में निवास करते हुए दुर्मति (बुरी बुद्धि) से मुक्त सिर पर सदा अञ्जलि रखकर, मुक्त-लोक-लोचन मनःस्थिति से ललाट-फाल पर स्थित शिव-नाम का उच्चारण करूँगा — तब मैं सदा सुखी रहूँगा।
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसन्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
अर्थ: यह उत्तम-उत्तम स्तोत्र यदि कोई नित्य और सही भावना से पठे, स्मरे और उस पर वाक्‍ता रहे — तो वह व्यक्ति शीघ्र ही गुरू (भगवान) के प्रति सुसभक्त बन जाता है; अन्यथा उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि सुशंकर (शिव) की चिन्ता ही जीवों का मोह हर देती है।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः
शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥ 15 ॥
अर्थ: पूजा के समापन पर यदि कोई संध्या के समय (प्रदोषे) शम्भु-पूजन-पूर्वक यह दशवक्त्र गीत (स्तोत्र) पढ़ता है, तो शम्भु उसे स्थिर सुख, रथ-हाथी-घोड़े-युक्त धन तथा लक्ष्मी (सौभाग्य) और सदैव शुभमुख प्रदान करते हैं।
इति श्रीरावणकृतम् शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्
(समाप्ति-सूचना) — इस प्रकार श्रीरावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्र पूर्ण हुआ।

About the author

D Shwari
I'm a professor at National University's Department of Computer Science. My main streams are data science and data analysis. Project management for many computer science-related sectors. Next working project on Al with deep Learning.....

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