|| श्री शिवमहिम्न स्तोत्रम् ||
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः । अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥
(अर्थ) हे हर — आपकी महिमा इतनी पारस्फुट है कि ब्रह्मादि देवताओं की वाणी भी पूरी तरह नहीं पहुँच सकती। जो साधारण-ज्ञान वाले लोग अपनी-अपनी बुद्धि से स्तुति करते हैं, वे अपूर्ण हैं; फिर मेरा भी यह स्तोत्र ऐसा ही अक्षम क्यों न हो — अतः मैं भी इसे समर्पित कर रहा हूँ।
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥
(अर्थ) आपकी महिमा वाणी और मन की पहुँच से परे है। वेद भी आपकी महानता का वर्णन करते समय नितान्त चकित होकर 'नेति-नेति' कहते हैं। फिर किसकी वाणी या मन इसकी पूरी स्तुति कर सकता है?
मधुस्फीत वाचः परमा ममृतं निर्मितवतः तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् । मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥
(अर्थ) हे प्रभु! वेदों की वह मधुर और अमृत-सम वाणी भी आपकी महिमा में आश्चर्यजनक प्रभाव डालने में असमर्थ है। पर मेरी बुद्धि सोचती है कि मेरा वचन भी कुछ पुण्यकारी हो सकता है — इसलिए मैं आपकी स्तुति बोलने हेतु मनोस्थित हुआ हूँ।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु । अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥
(अर्थ) हे वरद! तुम्हारा ऐश्वर्य जगत के सृष्टि-पालन-प्रलय का कारण है; यह वेदत्रयी में दर्शाया गया है और तीन गुणों में विभक्त है। केवल कुछ जड़ बुद्धिवाले लोग इसे नकारकर व्याकुल होते हैं — वे इसका नाश करने की बात करते हैं।
यत्तद्धि तव तत्त्वं तद्विद्यां जीवविभागे स्थितम् संदिग्धं कुतः कौतुकं किं ज्ञानप्रकटनम् । स त्वमेष परमो दैवो विमुच्यन्ते यथास्मि यस्य देहं परासु तवैकदर्शने पुण्यतः॥
(अर्थ) कि तुम्हारे तत्त्व का ज्ञान जीवों के भेद में स्थित है; इसका प्रत्यक्ष प्रकट होना आश्चर्यजनक है। तुम ही परम देव हो — जिनके एक दर्शन से लोगों को पुण्य प्राप्त होता है।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतांअधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति । अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो पश्चात्प्रभवति किं वा तत्र किं कुत्र वासयेत् ॥
(अर्थ) संसार के लोक जन्म-मरण से परे है — उसका अधिष्ठाता कौन? जगत के निर्माण का क्या विधान है? कौन इसका कारण है? यह प्रश्न उठते हैं; उन सब प्रश्नों के बारे में विचार करते हुए मन आश्चर्यचकित रहता है।
कुशलो भूत्वा यस्तत्त्वज्ञोऽपि हि न कुतः कार्यम् विरति च दशब्रह्मभासादाधिरुह्य च । कांचनैस्त्वं त्रिभिर्विभ्राजितस्तद्विद्यया विभ्र स्तुभ्ये स्युर्हि तव गुणैर्भुवनानि विभाति ते ॥
(अर्थ) जो व्यक्ति तत्त्व-ज्ञानी भी हो उससे यह कार्य कैसे किया जा सकता है? फिर भी तुम्हारी महिमा के दर्शन से संसार तुम्हारे गुणों को देख कर विभूषित होता है — और तेरी महिमा के गुणों से लोक महिमामंडित होते हैं।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् । सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्र न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥
(अर्थ) आपकी सामर्थ्य में खट्वाङ्ग (हथियार), परशु, जिह्वा, भस्म, सर्प आदि सब कुछ हैं — फिर भी विषयासक्ति (मृगतृष्णा) आत्माराम को भ्रमित नहीं करती। तुम वह वरदाता हो जो देवताओं को भी समृद्धि प्रदान करते हो।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥
(अर्थ) इस विषय पर अनेक मत हैं — कुछ लोग जगत को नित्य कहते हैं, कुछ अनित्य; उन मतों को देखकर मैं आश्चर्य से स्तुति करता हूँ और अपना मुखरता (वाचालता) भी प्रकट कर देता हूँ।
इत्थं कथयद्विषयमीश्वरं चिन्तयन्नपि च स्थिरो न हि कल्याणं प्राप्तम् अर्थान्न कृतेरपि । कृतं यः स न जहाति तमेव ब्रह्मविदां वरः स तस्मै विषो न ज्ञेयं स एव करिष्यति तु ॥
(अर्थ) — ईश्वर का विचिन्तन कर के भी कोई स्थिर कल्याण न प्राप्त करता; जो कर्म किया उसी का फल वह झेलता है — यह सत्य है।
यत्स्मिन्नाश्रयितं वर्तते जगद्वैचि च सिद्धये तद्व्यर्थं कथयन्ति कुतश्चिदपि नान्यथा स्मृतिः । यतो वैश्वानरं प्रभवति त्वत्सेवकानां कथं चित् तत्कृत्यं तवोपलब्धं तदर्थे किं न दिलयेत् ॥
(अर्थ) जिस पर जगत आश्रित है, उसकी चर्चा व्यर्थ नहीं — तुम्हारी भक्ति से जो फल मिलता है, वह प्राप्ति किस प्रकार घटती है, यह समझना कठिन है; परन्तु वे सब कार्य तुम्हारी उपलभ्धि के कारण ही संभव हैं।
उत्तमं मे वचः कथयेद् गिरा तव शोभनैः यच्चेन्न मन्येव श्लाघ्यं च स्यात्तेन मे सुपुष्टम्हि । यच्चेन्मम अङ्गे तद्भवेत्पदं तव प्रियं वाच्यं हि एवं श्रुत्वा मम हृदयं तव गुणान्तं समायते ॥
(अर्थ) हे प्रभु! यदि मेरी वाणी में कुछ उत्तम कहने योग्य हो और वह आपको प्रिय हो, तो वह मुझमें पुष्ट हो; ऐसा कुछ मेरे अंग में होता तो वह आपकी प्रशंसा का पात्र माना जाएगा — यही इच्छाशक्ति है।
नैव हि तत्समभवत्तद्वदितोऽस्मि मे बलं यच्च तु त्वत्कर्तव्यं तदुच्यते मम न लब्धे । तत्र सर्वेऽपि तत्तान्ते नित्यं भवति परिनामः तस्मात्स्तोत्रे मम तव कथा कर्णे बद्धा भूयात् ॥
(अर्थ) मुझमें वह बल नहीं कि मैं सब कुछ व्यक्त कर सकूँ; पर जो तुम्हारे लिए करना चाहिये, वह न कर पाया तो इसकी कमी मुझमें रहेगी। अतः मेरे स्तोत्र में तुम्हारी कथा कानों में बँधी रहे — यही मेरी विनती है।
कथयितुमेव तव स्नेहं ममात्मा विनोदम् भवतु कृत्यहृदि तुभ्यं तव भक्तिनि समर्पयेम् । यत्किंचित् मन्ये तव कथा भविष्यति तत्र मया तस्मात्तत्त्वमिव लेख्यं तव पदे परिगृह्यते ॥
(अर्थ) हे नाथ! केवल आपकी स्नेह-प्राप्ति हेतु मेरी आत्मा तुम्हारे लिए हर्षित है — मैं यह कथा अपने हृदय में आत्मसमर्पित कर देता हूँ। जो कुछ भी मैं सोचता हूँ, वह तुम्हारी स्तुति से सम्बन्धित हो — अतः मैं इसे लिखकर तुम्हारे चरणों में समर्पित कर दूँ।
यतस्त्वत्कृतं कार्यं तदात्मना कथयामि हि यत्किंचित्कथं कृत्यमसि तदपि तव ध्येयकृत् । यन्नैव मे कथ्यते तदत्र वाच्यं पापिनां हि ततो मे वाच्यते तविका वदति मे निन्दा॥
(अर्थ) जो कार्य मैंने तुम्हारे लिए किया है, उसे मैं कथन कर रहा हूँ; जो कुछ मैं करूं, वह सब तुम्हारे ध्यानार्थ है। यदि मैं कुछ भी ऐसा कह दूँ जो कलंकरित हो, पापियों की वह निन्दा मुझ पर होगी — पर मैं फिर भी तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ।
यत्किंचित त्वत्कृतं वपुर्मम चतुरङ्गदः गुणैर्न नित्यं विभूतिं वदति तद्वाच्यं तदित्यपि । यच्चैनं न यच्छेन्नास्ति तदा स्तवोभ्यः किं प्रभो पठामि लोके तवां स्वकीयेन वाणी भिन्ना॥
(अर्थ) जो कुछ भी तुम्हारे द्वारा किया गया और जो मुझमें चारों ओर स्थित है, उन गुणों से मैं वत्सल हूँ। जिन्हें कहना कठिन है, फिर भी मैं अपनी वाणी से तव गुण-शृंखला का वर्णन कर रहा हूँ — जो बातें उन सबके बाहर हों, उन्हें भी मैं अपना-सा मान कर कहता हूँ।
यदेतत्कथं कथ्यते यदि हि सर्वमिदं त्वयि गतं भवति न संशयः तव गुणानां निधानम् । यत्किंचिदेव तवापि रूपं परं तदवधौ न हीयते मम वाणी тव दीपेपि ध्येयमहि ॥
(अर्थ) यदि सब कुछ तुम्हारे ही स्वरूप में ही व्याप्त है, तो तुम्हारे गुणों का स्वरूप समस्त विश्व में परिलक्षित है — और मेरी वाणी उसे पूर्णतः नहीं बता सकती; तथापि मैं अपने वचन से तुम्हारी महिमा का प्रकाश करने का उद्देश्य रखता हूँ।
अयथाख्यास्तव भागो हि मे हृदि विभूतयः यच्चान्यथा न व्यक्तं तवागतं मयाऽपि तु । तदात्मार्द्रतां विदित्वा मम वाक्येऽपि हि न गम्यते यत्किंचिदपि पात्रे तव हृदये तदभवेत् ॥
(अर्थ) आपके गुणों का जो अंश मेरा हृदय भरा है, वह कुछ इस प्रकार है; पर जो कुछ भी यह अलग है और मुझ तक नहीं पहुँचा — उसे जान कर भी मेरी वाणी पूर्णतः नहीं पहुँच सकती। जो कुछ भी योग्य है, वह तुम्हारे हृदय में स्थित हो — ऐसी कामना है।
त्वत्प्रसादार्द्रं हृदयं मम विरहविषमाश्वसे त्वम् एव परमानन्दलोभो मे तु निदर्शना। यच्चेन्नाहृतमस्या मम वाणी वदति तान्यप्ये तानि तव सरसिजमुखे पश्यामि विभाति मे ॥
(अर्थ) तेरी कृपा से मेरा हृदय खुलकर विरह-विष को सहता है; तुम ही परम आनन्द हो और मेरी यह वाणी—जो कुछ भी कहती है—मैं उसे तुम्हारे कमलमुख में पाकर गौरव महसूस करता हूँ।
तव पादद्वयं गतैश्चित्तैर्न तु मम हृदये विराजेते यन्न कर्म करोतु कश्चित् तदपि न तव समीपे स्मरेत् । यदेतन्मयोऽयं लोके दिव्यं तदपि न तव परम् यच्चैतद्यत्कृतं मया तदपि तु न तव तुल्यते ॥
(अर्थ) तुम्हारे पाद-द्वय के प्रति लोगों की चिताएँ रहती हैं; परन्तु जो कर्म कोई भी करे, वही तुम्हारे समीप नहीं पहुँचता। यहाँ जो दिव्य कुछ है, वह भी तुम्हारे परम रूप के समकक्ष नहीं है; और जो मैंने किया, वह भी पूर्णतः तुम्हारे तुल्य नहीं पहुँचता।
यत्रापि तव गतं बुद्धिं त्वत्तोऽपि ब्रुवे मयि धन्ये यच्चित् मे नास्ति हि तद्वच्चार्यं कुर्यात्परम् । ततः समुपेक्ष्य मे वाणी त्वमात्मनो जिघांसया शृणुयादुत्तमं कथं मम वक्ष्यामि तव गुणान् ॥
(अर्थ) जिस स्थान पर तुम्हारी बुद्धि जा पहुँचे, वहाँ मैं धन्य मानूंगा; और जो कुछ मुझमें नहीं है, उसे तुम उत्तम प्रकार से मेरे द्वारा करवा देना। फिर भी मेरी वाणी तुम्हारे गुणों का सर्वोत्तम वर्णन कैसे कर सकती है — यह सुनो।
यच्च मे वचनमाचरति तदेतच्च मम प्रथमम् यद्येतच्छ्रुतं श्रेयो भवति तदप्यतस्त्वया हि । यदेतत्कथयितुं शक्या न हि मे परिद्रवितुम् यत्सर्वं सुमहान्तम्भवत्येव तदुपेयव्यम् ॥
(अर्थ) मेरी वाणी जो कहती है, वह मेरा प्रारम्भ है; और जो श्रुति से श्रेष्ठ सिद्ध हो वह भी तुम्हारे द्वारा ही है। जो कुछ भी मैं व्यक्त कर सकता हूँ वह सीमित है — पर जो सभ्यता बहुत महान है, वही सर्वत्र उपेक्षित न रहे।
यच्चेदं मम वाक्यमिति मे न विभूयते मनः यदपि वदति तव गुणंश्चेत्थैव तेषामधुः । यच्च तु मम अभ्यर्च्यते तस्यैव मे श्रवणं भवेत यद्यदिति तदेतत् सर्वं त्वया पूज्यते नमः ॥
(अर्थ) जो कुछ भी मेरे मन में है और जो मेरी वाणी कहती है — सब तुम्हारे गुणों की ओर ही संकेत करते हैं। जो कुछ भी मेरा अर्चना (पूजा) है, उसकी श्रवण-शक्ति वही है जो मुझे प्रमाण में मिलती है। अतः सब कुछ तुम्हारे पूजन के योग्य है — नमन।
तत्किंचिदपि मम मुखेन पापिनामपि चेतनात् वदति तव महिम्नां तद्विन्दे यदि कण्टकः पापः । यन्न हि मम वाक्यमिदं तन्मे भुवनपतेः प्रियं तत्सर्वं मे तव चरणौ शरणं कुरु प्रसादया ॥
(अर्थ) यदि मेरी वाणी से कुछ पापी शब्द भी निकले — वह भी तुम्हारी महिमा के वर्णन में प्रयुक्त है; पर हे भुवनपति! यदि यह तुम्हें प्रिय है, तो संपूर्ण वाणी को मेरे चरणों की शरणस्थली बना कर कृपा करो।
किं नु तव यस्यैव हितं मे वदामि तदंतरे यच्चैव न मे तदर्थं स्यात् तदात्मनो न पश्यति । ये च मे वाक्ये सर्वे स्युरात्मयोग्याः तदृशाः श्रुताः ते मे एव प्रसन्नं भवन् तस्मात्ते मे एव कारय ॥
(अर्थ) जो कुछ भी मैं कहता हूँ वह तव हितार्थ ही है; और जो नित्य न हो, वह मेरे लिये अर्थहीन है — परन्तु जो मेरे वचन योग्य हैं, वे तुम्हें प्रसन्न करते हैं — इसलिये तहे दिल से उन्हें स्वीकार करो।
त्वमेव रूपोऽसि सर्वस्य तथा परमो नित्यम् त्वमेव च विश्वस्य मध्यं चोदितः परो भवेत् । यच्छ्रुतं मम हि तदेवं न हि मे परिजानयेत् यच्चान्यथा मम वाक्ये तदपि तव गुणान्यपि ॥
(अर्थ) तुम ही सभी का रूप हो और शाश्वत परम स्वरूप; तुम ही जगत का केन्द्र हो। जो कुछ भी मैंने माना है — वह तुम्हारे गुणों से जुड़ा है — और मेरा वचन उन्हें ही इंगित करता है।
यच्चेदं वदामि तमेत्यत्र भवतो वचनम् यदेतन्मम हृदि स्फुरति तदिह द्रष्टुं मे स्यात् । यत्सर्वमिदं वियुक्तं तदेवाभ्यर्च्यते हि मे तत्र स्थिरं कुरु मे त्वत्प्रसादात्त्वमयं वत् ॥
(अर्थ) जो कुछ भी मैं कहता हूँ वह तुम्हारे वचन से जुड़ा है; जो मेरे हृदय में स्फुरित होता है, वह मुझे दृष्टव्य बनो। जो कुछ भी पृथक् है, वह मेरी भक्ति से ही पूजित है — इसलिए तुम्हारी प्रसाद-चरण से मुझे यह स्थिरता दीजिये।
तत्प्रतिपन्नो मया हि तवेश त्वदनुग्रहाच्च यद्यद्वदामि तस्मादपि किं तदर्थो भवेत् । यत्किंचिदपि वदेमेवं तस्मै त्वदुपेक्षया नूनं कमलं स्तव्यमिति मन्ये मे मनोऽवस्थितम् ॥
(अर्थ) मैं यह मानकर बोलता हूँ कि यह सब तुम्हारे अनुग्रह से ही सम्भव है। जो कुछ भी मैं कहूँ, उसका अर्थ तुम्हारी उपेक्षा से परे है — फिर भी मेरे मन में यह आशा है कि कमल-चरन की स्तुति अर्ह होगी।
यच्च मम वाच्यं हि तस्मै त्वद्धितं न मे बुध्यते यत्सर्वं यदागतं भवेत्तदपि तव वक्ष्यम् । यच्च तथा भावनं तदपि तेन मया क्रियते यच्चान्यथा तदिदं हि प्रपद्ये न हि मे कल्पितम् ॥
(अर्थ) जो कुछ भी मेरी वाणी कहे, वह वास्तविकता में तुम्हारे प्रति है — मैं उसे न देख सकूँ तो भी मैं तुम्हारी महिमा वक्ष्य। जो भावनाएँ मुझमें हैं, मैं उन्हें ही शब्द देता हूँ; जो कुछ अन्यथा है, वह मेरे कल्पनातीत है।
किंचित्प्रयत्नमकाले मम वाक्यं भवति यदि न घृणां न तु विस्मयं च न तु मे पार्थिवं बलम् । यत्सर्वं भवति यन्मया तदेव मम परिकीर्त्यते यच्चेतदपि नास्ति तदेव मयि न परिमितम् ॥
(अर्थ) यदि कभी मेरे वचन में प्रयास-दोष हो तो भी न उस पर घृणा करना, न आश्चर्य; न ही यह किसी पार्थिव बल से संपन्न है। जो कुछ भी मुझसे उत्पन्न हो वह मेरी ही कथन-सीमा में है — और जो न हो, वह मुझमें परिमित नहीं है।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।
(अर्थ) हे वरद! मेरी छोटी-सी बुद्धि का आश्चर्य कर के भी मेरी भक्ति ने मुझे उत्साहित किया — इसलिए तेरे चरणों पर यह वाक्य-पुष्प (मेरा स्तोत्र) अर्पित है।
असितगिरि समं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे सुर-तरु-व-रशाखा लेखनी पत्रमुर्वी। लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥
(अर्थ) यदि पर्वत सा काल्पनिक स्याही, समुद्र स्याही-घड़ा, कल्पवृक्ष की शाखाएँ कलम और पृथ्वी कागज मानी जाएँ और सरस्वती भी निरन्तर लिखे — तब भी तुम्हारे गुणों की परा-सीमा पार नहीं हो पाएगी।
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य। सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥
(अर्थ) देव-दानव-मुनियों द्वारा पूजित इस चन्द्र-शेखर (शिव) की गुण-श्री का वर्णन निर्गुणेश्वर (निर्गुण भगवान) का है। सब गणों में श्रेष्ठ पुष्पदन्त (गन्धर्व) ने यह सुन्दर और निर्मल छंदों में यह स्तोत्र कृत किया।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः। स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च॥
(अर्थ) जो मनुष्य इस निःक्षपित (निरापद) स्तोत्र का नित्य, शुद्धचित्त होकर भक्ति से पाठ करता है वह शिवलोक को प्राप्त होकर रुद्र के समान हो जाता है; तथा संसार में उसे धन, आयु, पुत्र और कीर्ति की प्राप्ति भी होती है।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति:। अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥
(अर्थ) महेश (शिव) से बड़ा कोई देव नहीं; इस स्तोत्र से उत्तम कोई स्तुति नहीं; 'अघोर' मंत्र से बड़ा कोई मंत्र नहीं; और गुरु से परमार्थ में बड़ा तत्त्व कोई नहीं।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः। महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
(अर्थ) दीक्षा, दान, तप, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञादि ये क्रियाएँ हैं — वे भी इस शिवमहिम्न स्तोत्र के पाठ से होने वाले फलों (इसके एक-षोडशवें अंश) को प्राप्त नहीं कर सकतीं। अर्थात् इस स्तोत्र-पाठ का फल अत्युत्तम है।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्ध्रराजः शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः। स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥
(अर्थ) कुसुमदन्त (पुष्पदन्त) नामक गन्धर्व-राज जो चन्द्रशेखर (शिव) के प्रिय सेवक थे — क्रोधवश उन्होंने अपनी महिमा भंग की; तब उन्होने यह दिव्य-महिम्न स्तोत्र रचा जिससे उनका नाश हुआ और फिर कृपा प्राप्त हुई।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैकहेतुं पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः। व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥
(अर्थ) यदि कोई मनुष्य देवगुरु की पूजा करके, हाथ जोड़कर, एकाग्रचित्त से यह अक्षुण्ण और अव्यर्थ शिव-स्तोत्र पाठ करे, तो वह किन्नरों के स्तुति-योग्य होकर शिवलोक को प्राप्त हो जाता है — यह पुष्पदन्त-प्रणीत अमोघ स्तोत्र है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्। अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्॥
(अर्थ) यह स्तोत्र जो पुष्पदन्त द्वारा कहा गया है — सम्पूर्ण और पुण्यपूर्ण है; इसमें ईश्वर का अनुपम और मनोहर वर्णन है।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः। अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥
(अर्थ) यह वाङ्मयी (शब्द-रूपी) पूजा श्री शङ्कर (शिव) के चरणों को अर्पित है — हे देवेश! सदाशिव! कृपया यह प्रिय हो।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर। यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥
(अर्थ) हे महेश्वर! तेरे तत्त्व को मैं नहीं जानता — तू कैसा है, मैं नहीं जानता; पर उस अज्ञात तत्त्व को ही बार-बार नमन करता हूँ।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः। सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते॥
(अर्थ) जो मनुष्य इसे एक बार, या दो बार, या तीन बार पढ़े — वह सर्वपाप-विहीन होकर शिवलोक में प्रतिष्ठित हो जाता है।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण। कण्ठस्थेन पठितेन समाहितेन सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महешः॥
(अर्थ) यह स्तोत्र पुष्पदन्त के कमल-मुख से निकला जिसके द्वारा पाप भी हर लेता है; जो इसे मनन-समाहित होकर, स्मरण-स्थ के साथ, कंठस्थ कर पढ़े — उससे भूतपति महेश (शिव) अत्यंत प्रसन्न होते हैं।