स्तोत्र की विशेषताएँ
- यह स्तोत्र धन, समृद्धि और सौभाग्य की देवी माँ लक्ष्मी को समर्पित है।
- 'कनकधारा' का अर्थ है 'स्वर्ण की धारा'। मान्यता है कि इसके पाठ से धन की वर्षा होती है और दरिद्रता दूर होती है।
- इसकी रचना आदि शंकराचार्य ने एक निर्धन स्त्री के उद्धार के लिए की थी, जिससे यह करुणा और परोपकार का भी प्रतीक है।
रचना का उद्देश्य
- एक बार आदि शंकराचार्य भिक्षा मांगने एक निर्धन ब्राह्मणी के घर पहुंचे। उस स्त्री के पास भिक्षा में देने के लिए कुछ भी नहीं था, सिवाय एक सूखे आंवले के। उसने वही आंवला संकोच के साथ शंकराचार्य को अर्पित कर दिया।
- उस स्त्री की दरिद्रता और उदारता देखकर शंकराचार्य का हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने तत्काल माँ लक्ष्मी का आह्वान करते हुए इस स्तोत्र की रचना की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर माँ लक्ष्मी ने उस स्त्री के घर स्वर्ण के आंवलों की वर्षा कर दी।
पाठ की सरल विधि
- इस स्तोत्र का पाठ शुक्रवार, अक्षय तृतीया या दीपावली के दिन करना विशेष फलदायी माना जाता है।
- सुबह या शाम को स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनें और माँ लक्ष्मी की तस्वीर के सामने घी का दीपक जलाएं।
- पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ स्तोत्र का पाठ करें। इसका पाठ कर्ज से मुक्ति और आर्थिक समस्याओं को दूर करने में सहायक होता है।
|| श्री कनकधारा स्तोत्रम् ||
अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्तीं, भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला, माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः॥१॥
अर्थ: जैसे भ्रमरी अधखिले तमाल-वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ती रहती है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, वह संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की कटाक्ष-लीला मेरे लिए मंगलदायिनी हो।
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः, प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या, सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः॥२॥
अर्थ: जैसे भ्रमरी महान कमल-दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो मुरारी श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बार-बार प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है, समुद्र से जन्मी उन महालक्ष्मी की वह दृष्टि-माला मुझे धन-संपत्ति प्रदान करे।
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षम्, आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धम्, इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः॥३॥
अर्थ: जो संपूर्ण देवताओं के राजा इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मुरारी श्रीहरि को भी अत्यधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान सुंदर है, वह लक्ष्मीजी का अर्ध-खुला हुआ नेत्र-कटाक्ष क्षण भर के लिए मुझ पर भी पड़े।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दम्, आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं, भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः॥४॥
अर्थ: शेषनाग पर शयन करने वाले भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी श्रीलक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनके बंद होते हुए भी आनंदकंद श्रीमुकुंद को प्राप्त करके जो आनंद से अधखुले रहते हैं और कामदेव की भी अनंगता के वशीभूत हैं।
बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या, हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः॥५॥
अर्थ: भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि से सुशोभित वक्षस्थल पर इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होने वाली तथा भगवान के भी मन में काम-भाव का संचार करने वाली कमलवासिनी लक्ष्मी की वह कटाक्ष-माला मेरा कल्याण करे।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेः, धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिः, भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः॥६॥
अर्थ: जैसे काले बादलों की पंक्ति में बिजली चमकती है, उसी प्रकार कैटभ-शत्रु श्रीविष्णु के काले मेघों के समान सुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होने वाली, समस्त लोकों की जननी, भृगु-पुत्री लक्ष्मीजी की पूजनीया मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्, माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मয্যাपतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं, मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः॥७॥
अर्थ: समुद्र-कन्या लक्ष्मी का वह मंद, अलस, मंथर और अर्ध-उन्मीलित कटाक्ष, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में पहली बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े।
दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम्, अस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं, नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः॥८॥
अर्थ: नारायण की प्रेयसी लक्ष्मीजी का नेत्र रूपी मेघ दया रूपी अनुकूल पवन से प्रेरित होकर, दुष्कर्म रूपी घाम को दूर हटाकर, मुझ दीन-दुखी रूपी चातक पर चिरकाल के लिए धन रूपी जल की धारा बरसाए।
इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र, दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां, पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः॥९॥
अर्थ: विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनकी दया-दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग-पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं कमल पर विराजमान लक्ष्मीजी की वह खिले हुए कमल के भीतरी भाग की कांति के समान दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।
गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति, शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै, तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥१०॥
अर्थ: जो सृष्टि-लीला के समय ब्रह्म-शक्ति के रूप में (गीर्देवता), पालन-लीला के समय गरुड़ध्वज भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी (गरुडध्वजसुन्दरी) के रूप में, प्रलय-लीला के समय शाकंभरी अथवा चन्द्रशेखर शिव की पत्नी पार्वती (शशिशेखरवल्लभा) के रूप में स्थित होती हैं, उन त्रिभुवन के एकमात्र गुरु भगवान नारायण की नित्य-यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै, रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै, पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै॥११॥
अर्थ: हे माता! शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सागर रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल-वन में निवास करने वाली शक्ति-स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तम-प्रिया पुष्टि-रूपा लक्ष्मी को नमस्कार है।
नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै, नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै, नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै॥१२॥
अर्थ: कमल-सदृश मुख वाली लक्ष्मी को नमस्कार है। क्षीरसागर में उत्पन्न होने वाली लक्ष्मी को नमस्कार है। चंद्रमा और अमृत की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की प्रिया को नमस्कार है।
नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै, नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै, नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै॥१३॥
अर्थ: स्वर्ण-कमल के आसन वाली देवी को नमस्कार है। भूमंडल की नायिका को नमस्कार है। देवताओं आदि पर दया करने वाली को नमस्कार है। शार्ङ्ग-धनुषधारी भगवान विष्णु की प्रिया को नमस्कार है।
नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै, नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै, नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै॥१४॥
अर्थ: भृगु-कन्या देवी को नमस्कार है। भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर स्थित देवी को नमस्कार है। कमल में निवास करने वाली लक्ष्मी को नमस्कार है। भगवान दामोदर की प्रिया को नमस्कार है।
नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै, नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै, नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै॥१५॥
अर्थ: कमल-नेत्रों वाली कांति-रूपा देवी को नमस्कार है। जगत की उत्पत्ति करने वाली ऐश्वर्य-रूपा देवी को नमस्कार है। देवगणों द्वारा पूजित देवी को नमस्कार है। नंद-पुत्र भगवान श्रीकृष्ण की प्रिया को नमस्कार है।
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि, साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि, मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये॥१६॥
अर्थ: हे कमल-नयनी, माननीय माँ! आपके चरणों में की हुई वंदना संपत्ति प्रदान करने वाली, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाली, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हरने के लिए उद्यत है। वह वंदना मुझे ही नित्य प्राप्त हो।
यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः, सेवकस्य सकलार्थसम्पदः।
सन्तनोति वचनाङ्गमानसैः, त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे॥१७॥
अर्थ: जिनके कटाक्ष की उपासना भक्त के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, उन मुरारी की हृदयेश्वरी लक्ष्मी देवी का मैं मन, वचन और शरीर से भजन करता हूँ।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते, धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे, त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥१८॥
अर्थ: हे भगवति! हे हरिप्रिये! तुम कमल-वन में निवास करती हो, तुम्हारे हाथों में कमल सुशोभित है, तुम धवल-शुभ्र वस्त्र, गंध और माला से शोभायमान हो। हे त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली, तुम मुझ पर प्रसन्न होओ।
दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट, स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम्।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष, लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम्॥१९॥
अर्थ: दिग्गज हाथियों द्वारा स्वर्ण-कलशों के मुख से गिराए गए आकाशगंगा के निर्मल और मनोहर जल से जिनके श्रीअंगों का अभिषेक होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रातःकाल प्रणाम करता हूँ।
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं, करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां, प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः॥२०॥
अर्थ: हे कमल-नयन भगवान विष्णु की प्रिया कमले! तुम अपनी करुणा की बाढ़ से तरंगित हुए कटाक्षों से मुझ दीन-हीन पर दृष्टि डालो, जो तुम्हारी अकृत्रिम दया का सबसे पहला और योग्य पात्र है।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं, त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो, भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः॥२१॥
अर्थ: जो लोग इस स्तोत्र के द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी-स्वरूपा, त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस पृथ्वी पर अधिक गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं और विद्वान लोग भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।